Thursday 26 April 2012

माटी

कुदरत जब चाक पर माटी घुमाती
माटी से नए प्राणी के पुतले बनाती
कुदरत की रचना ये माटी के पुतले
माटी पर पलते निखरे उजले
कुदरत जब  इन पुतलो को भट्टी में पकाती
कोई कम कोई मध्यम कोई ज्यादा पक जाती
जो माटी के पुतले कम पक पाते
जरा सी ठोकर में वे टूट जाते
जो थोडा सा और पक जाते
जिंदगी को हँसते रोते जी जाते
जो पूरी तरह से पक जाते
इस दुनिया को कर्मो से रोशन कर जाते
माटी के पुतलो में जान डाली
पुतलो ने माटी से कई रचना बना  डाली
माटी को जब पुतले भट्टी में पकाते
सुंदर लाल सी ईटो के ढांचे बनाते
माटी को जब ये चाक पर चढाते
तरह तरह के बर्तन बनाते
माटी पर जब हल चलाते
माटी से ये अन्न पा जाते
एक ही माटी की है सब रचना
माटी को बाँट देश बनाया अपना
माटी के अंदर अनेक खजाने
जल सोना चाँदी हीरे की खाने
माटी कहती अनगिनत कहानी
आज, कल और सदियों पुरानी
माटी कहती अपनी आत्म कथा
उसमे झलकती उसकी व्यथा
इसी के पुतले इसको गन्दा कर जाते
इसमें पैदा,पलते और मिल जाते
माटी का यह जगत है सारा
फिर भी है यह कितना प्यारा
माटी सबकी जननी बनी है
इसलिए माता समान पूजनीय है

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