Friday 27 April 2012

ढांचा समाज का

समाज का स्वरूप चंद लोग ही बदलते  हैं
जैसे सूरज अकेले ही जग में उजाला भरते हैं
एक ही शक्ति समाज को चलाती है
नेता के रूप में हमारे सामने आती है
इनमे से कुछ नेता बुराई का नेतृत्व करते हैं
देश,समाज,संस्कृति को खोखला करते हैं
एक तरफ तो सफ़ेद पोश बनकर सत्संग करते हैं
दूसरी तरफ ये जमाखोरों से विवाह करते हैं
जमाखोरी दुल्हन बन देश में आती है
भष्टाचार,रिश्वत को दहेज़ में लाती है
महंगाई को जन्म देकर दुःख  की जननी बन जाती है
देश में भुखमरी,गरीबी बसेरा कर जाती है
इससे निपटने में जनता एडी से चोटी तक का बल लगाती है
फिर भी दुखो के सागर से पार नहीं पाती है
पेट के लिए जनता दिन रात जुटी रह जाती है
रिश्ते,संस्कार,प्यार ताक पार रखकर धन के पीछे दौड़ती जाती है
हर तरफ ये शोर सुनाई दे रहा है
समाज इंसानों का नहीं मशीनों का बन रहा है
त्याग,प्रेम, अपनापन सब समाप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है
लालच कालसर्प की तरह आदर्श समाज को निगल रहा  है
इसको बचाने के लिए अच्छे इंसान को नेता बनाओ
अपना धन सरकार के हाथ में देकर नुक्सान न उठाओ
अपने नगर की भलाई के लिए स्वंय सहायता समूह बनाओ
धन देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति मत पाओ

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